शारदीय नवरात्रि की शुरुआत 3 अक्टूबर से, समापन 12 अक्टूबर को
गुरुग्राम। श्री माता शीतला देवी श्राइन बोर्ड के पूर्व सदस्य एवं आचार्य पुरोहित संघ गुरुग्राम के अध्यक्ष पण्डित अमर चंद भारदाज ने मां दुर्गा के सभी भक्तों को शारदीय नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए बताया कि नवरात्र में मां दुर्गा की आराधना से सुख और समृद्धि की होती है। उन्होंने कहा कि इस बार शारदीय नवरात्रि का शुभारंभ 3 अक्टूबर से होगा और 12 अक्टूबर को समापन होगा। पंडित अमरचंद भारद्वाज ने कहा कि एक पौराणिक मान्यता के अनुसार महिषासुर नाम का एक दैत्य था। ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान पाकर वह देवताओं को सताने लगा था। महिषासुर की अत्याचार से परेशान होकर सभी देवी देवता भगवान शिव, विष्णु और ब्रह्मा जी के पास गए। इसके बाद तीनों देवताओं आदि शक्ति का आवाहन करने पर मां दुर्गा का अवतरण हुआ। इसके बाद देवताओं से शक्तियां पाकर मां देवी दुर्गा ने नौ दिनों तक लगातार युद्ध करके महिषासुर का वध किया। मान्यता है कि इन नौ दिनों में देवताओं ने रोज देवी की पूजा आराधना कर उन्हें बल प्रदान किया। तब से ही नवरात्रि का पर्व मनाने की शुरुआत हुई। मान्यता यह भी है कि माता सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाने और रावण पर विजय पाने के लिए श्री राम ने देवी दुर्गा का अनुष्ठान किया। यह अनुष्ठान लगातार 9 दिन तक चला अंतिम दिन देवी ने प्रकट होकर श्री राम को विजय का आशीर्वाद दिया। दसवें दिन श्री राम ने रावण का वध कर विजय प्राप्त किया। तभी से हर साल नवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। इस बार देवी दुर्गा गुरुवार को पालकी पर सवार होकर आ रही हैं। देवी पुराण में पालकी पर सवार होकर आना शुभ माना गया है।
कलश स्थापना का सर्वाधिक शुभ मुहूर्त 3 अक्टूबर को प्रातः काल 6.24 बजे से लेकर सुबह 8:45 मिनट तक
पंडित अमरचंद भारद्वाज ने बताया कि पंचांगों के अनुसार कलश स्थापना का सर्वश्रेष्ठ शुभ मुहूर्त प्रातः काल 6:24 से लेकर सुबह 8:45 मिनट तक। अभिजित मुहूर्त दिन में 11 :52 बजे से 12:39 मिनट तक । चौघड़िया मुहूर्त शुभ का चौघड़िया प्रातः 6:24 बजे से 7:52 तक है।
प्रथम दिन माता शैलपुत्री की पूजा
मां दुर्गा पहले स्वरूप में शैलपुत्री के नाम से जानी जाती हैं। पर्वत राज हिमालय के वहां पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण माता का नाम शैलपुत्री पड़ा था। माता जी के दाहिने हाथ में त्रिशुल और बायें हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। माता का विवाह भगवान शंकर जी से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना अपना यज्ञ भाग प्राप्त करनेके लिए निर्मंत्रित किया। किन्तु शंकर जी को उन्होंने इस यज्ञ में निमन्त्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि हमारे पिता एक अत्यन्त विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने के लिये उनका मन विकल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बताई। सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा कि प्रजापति दक्ष किसी कारण वश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को बुलाया ही नहीं निमंत्रित किया है। हमें जान बूझकर कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा। शंकर जी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने वहां जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकर जी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे दी। सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुंह फेरे हुए हैं केवल उनकी माता ने स्नेह से उनहें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुंचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहां भगवान शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है । दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमान जनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा कि भगवान शंकर जी की बात न मान, यहां आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है। वह अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण दुःखद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध होकर अपने गणों को भेज कर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया। इसके बाद माता ने शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वह शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं। पार्वती, हेमवती भी उन्हीं के नाम हैं। माता शैलपुत्री का विवाह भी शंकर जी से ही हुआ । पूर्व जन्म की भांति इस जन्म में भी वह शिवजी की अर्द्धांगिनी बनीं । नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्त्व और शक्तियां अनन्त हैं। नवरात्र- पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। कथावाचक पण्डित अमर चन्द भारद्वाज ने कलश स्थापना का विधि विधान बताया। कलश स्थल पर विधिवत सब सफाई कर एक छोटा मिट्टी का बर्तन ले उसमें पीली मिट्टी डालें मिट्टी का चौथाई हिस्सा जौं लें इसे मिट्टी में ठीक से मिलाएं और आवश्यकतानुसार पानी डालें। उस मिट्टी के बर्तन के ऊपर मिट्टी कलश पानी भरकर रखें मिट्टी के कलश में एक सुपारी और एक सिक्का तथा गंगाजल डालें कलश की गर्दन मतलब की ऊपरी हिस्से पर कलावा बंधे कलश पर स्वास्तिक ( सातिया ) बनाएं कलश के ऊपर 5 पत्तों के आम के टहनी रखें। उसके ऊपर जटा वाला हरा नारियल रखें और उसपर नारियल पर एक लाल अंगोछा अथवा माता की लाल चुन्नी लपेटें। नारियल के ऊपर फूलों की माला रखें। इस कलश की स्थापना उत्तर दिशा में करें अथवा उत्तर पूर्व में करें। माता की चौकी पूर्व दिशा में रखें जिससे कि पूजा करने वाले का मुंह पूर्व दिशा की तरफ हो। चौकी पर लाल कपड़ा बिछाएं उसे कलावा से चौकी पर बांथे लाल कपड़ा बिछाकर माता की प्रतिमा रखें अखंड दीपक जलाएं अथवा प्रतिदिन सुबह शाम दीपक अवश्य जलाएं सुबह शाम माता की आरती जरूर करें। प्रथम दिन मां शैलपुत्री को सफेद बर्फी या दूध से बनी मिठाई का भोग लगाएं। पीले वस्त्र पहनकर या देवी सर्वभूतेषु मां शैलपुत्री रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ मन्त्र का 11बार जाप अवश्य करें।