सन्त बाबा उमाकान्त जी ने बताया लोक बनाना और परलोक बनाना किसको कहते हैं
उज्जैन (म.प्र.)लोक और परलोक दोनों बनाने वाले, अपनी सभी जिम्मेदारियों को सरलता से सफलतापूर्वक निभाने का तरीका बताने वाले, जीवात्मा को उसके स्थाई स्थान तक पहुँचाने वाले, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त महाराज जी ने अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि लोक बनाना किसको कहते हैं? अच्छा मन के मुताबिक खाने को मिल जाए, जो खाये वो हजम हो जाए, रहने के लिए घर में संतुष्टि की जगह हो जाए, कहते हैं यहाँ आराम है, ठीक है, कपड़ा ऐसा मिल जाए पहनने को जिससे सम्मान में कमी न आवे, जिस स्तर पर आदमी रहता है उस स्तर पर कपड़ा ऐसा पहन ले कि उसका सम्मान बना रहे। मान-सम्मान, कपड़ा, धन यही तो आदमी को चाहिए, इसी को तो लोक बनाना कहते हैं। औरत पतिव्रता हो, पुत्र आज्ञाकारी हो, एक पत्नी धारी पति हो तो समझो यही लोक बनना होता है। कम कमाये और बरकत ज्यादा दिखाई पड़े, खर्चा भी चल जाए और दो रुपया भी बच जाए। तो कहते हैं कोई दिक्कत नहीं है, लोक बना हुआ है। परलोक बनाना: यह जीवात्मा ऊपरी लोकों में आने-जाने लग जाए, उस प्रभु के पास पहुंचने लग जाए, वहां इसका आना-जाना शुरू हो जाए, ऊपर की जानकारी हो जाए, परा विद्या का ज्ञान हो जाए, पराधन की प्राप्ति हो जाए तो उसको परलोक बनाना कहते हैं। (ये दोनों बनना वक़्त के समरथ गुरु के हाथ में होता है)
गृहस्थ आश्रम की जिम्मेदारी क्या होती है?
गृहस्थ आश्रम में आप रहते हो, रहो और जो आपकी गृहस्थ आश्रम की जिम्मेदारी है, उसको निभाओ। बाल-बच्चों की देखरेख, बच्चियों पति की, सास-ससुर की सेवा, बच्चों माता-पिता की सेवा, यह करना एक गृहस्थ का धर्म होता है। इसको बराबर करते रहो। लेकिन इसमें से समय निकाल करके 15 दिन-महीने में एक बार ऐसे स्थान पर जहां सतसंग, साधन भजन होता हो, वहां पर चले आना चाहिए।
जो पैदा होता है वह मरता है
कोई नहीं बचा, सबको जाना पड़ा। बाली, विक्रमदेव, दाधीच गए, पारस गए…। जो पेड़ फलता है, वह झड़ता है। जो आग जलती है, वह बुझती है। जो पैदा होता है, वह मरता है। दधीचि ने अपनी हड्डी का दान देवासुर संग्राम में दे दिया था। दुर्योधन की 64 कोस में छतरी थी। दुर्योधन चले गए। बड़े-बड़े चले गए तो सोचो आप (इस दुनिया से) नहीं जाओगे? जो मनुष्य शरीर में आया, जाना सबको पड़ेगा। आप सतसंगी, धर्म प्रेमी हो, आप सोचो, आप कहां जाओगे। शरीर को तो लोग मिट्टी कहकर ले जाकर के राख करके चले आते हैं लेकिन यह शरीर को चलाने वाली जीवात्मा यह कहां जाएगी? इसके लिए भी आपको कोई स्थान बनाने की जरूरत है। जो माया रुपी मधु, इंद्रियों का भोग है, इसमें मत फंसो। देखो रहना चाहिए सब, लेकिन निमित्त मात्र।