महाराज जी ने समझाया राजा जनक विदेही क्यों कहलाए
उज्जैन (म.प्र.)इस समय के युगपुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि जो इस धरती पर वक्त के समरथ सन्त होते हैं, वह दोनों काम करते हैं। बंधन को काट करके मुक्त करा दिया करते हैं। यह जो दुनिया का जगत का बंधन है, यह मोटा बंधन कहा गया है। इसको भी कटवा देते हैं और लिंग शरीर, सुक्ष्म शरीर, कारण शरीर वाला झीना सूक्ष्म बंधन कहलाता है उससे भी मुक्त करवा देते हैं। मोटे बंधन जगत के, गुरु भक्ति से काट, झीने बंधन चित के, कटे नाम प्रताप। मोटे जब तक जाए नहीं, झीने कैसे जाए, याते सबको चाहिए, नित गुरु भक्ति कमाये।। यह दोनों बंधन तब कटेंगे जब गुरु भक्ति करोगे। गुरु के आदेश के पालन को गुरु भक्ति कहते हैं।
राजा जनक विदेही क्यों कहलाए
राजा जनक विदेही कहलाए थे क्योंकि शरीर में रहते-रहते आत्मा को निकाल लेते थे। और शरीर में कोई जान नहीं रह जाती थी। जब शरीर में जान रहती है तभी आदमी को बोध रहता है, कुछ सोचता, विचारता, देखता, सुनता, करता है। और जब आत्मा निकल जाएगी तो यह मन भी उसके साथ जाता है। तब इधर का कोई होश नहीं रहता है। आदमी कुछ चिंतन, सोचता विचारता नहीं है।
दाता मनुष्य शरीर में होते हैं
एक समय ऐसा था कि हमारे पास कुछ नहीं था, जब मैं वहां से (पुराने आश्रम से) सब छोड़ करके चला आया। किसी भी चीज का मोह नहीं किया। हमने कहा, जिसका हाथ पकड़े हैं, वह हमको देंगे। दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया। कहा गया है- धरनी जहलो देखिए, तहलो सबय भिखार, दाता केवल सतगुरु, देत न माने हार। देने वाले तो जो परम पिता परमात्मा के अंश होते हैं, ताकत होते है, इस धरती पर मनुष्य शरीर में होते हैं, देने वाले तो वो होते हैं। तो हम इसका क्या करें, छोड़ो इसको (जमीन-जायदाद), गुरु का काम करना है। तो निकाल करके यहां (उज्जैन) आ गया। तो यह सब जमीन खरीदी गई। तो यह सब आपके सहयोग से हुआ। आपने गुरु के निमित जो निकाला, वह हुआ। लेकिन किया किसके लिए? अपने लिए नहीं किया। मेरे कोई लड़का बच्चा पत्नी घर दुकान कल-कारखाना कुछ नहीं। जो कुछ किया सब आपके लिये किया। सन्त न भूखा तेरे धन का, उनके तो धन है नाम रतन का, पर तेरे धन से कुछ काम करावें, भूखे दुखे को खिलवावे। भंडारे सब जगह चल रहे हैं। धार्मिक स्थानों पर भंडारे चल रहे हैं। किसी भी आश्रम पर कोई चला जाए, अब तो बहुत सारे आश्रम बन गए, बहुत सी जमीनें हो गई, बन भी गया। ध्यान भजन भी लोग करते हैं। जितने भी भंडारे चल रहे हैं आश्रमों पर, कोई भी आवे-जावे, खाए-पिए। आप सोचो आप यहाँ स्थानीय हो और जगन्नाथपुरी ओडिशा, सोमनाथ गुजरात, महाराष्ट्र, केदारनाथ उत्तराखंड आदि में भंडारे चल रहे हैं। और खर्चा कहां से हो रहा है? जो आपने झोली गोलक में डाला, वहां से हो रहा है। तो आप यहां के रहने वाले हो, अपने यहां डाला, खर्चा वहां हो रहा है और वहां आने-जाने वाले खा रहे हैं। कोई महाराष्ट्र का जा रहा है केदारनाथ में खा रहा है, कोई गुजरात का जा रहा है, कोई अमेरिका का जा रहा है, विदेश का आया है, वह घूमने जा रहा है, वह खा रहा है। तो लेना-देना अदा हो रहा है। भूखे-दुखे खा रहे हैं। अरबपति करोड़पति कोई हो और रात को वहां पहुंचे और होटल बंद हो गई तो असहाय हो गया कि कहां खाएं। या तो पानी पीकर के सो जाए नहीं तो अपना भंडारा खुला हुआ है, कोई भी कभी भी आवे, 24 घंटे, भूखा है, कुछ न कुछ मिल जाएगा खाने को। कुछ न कुछ बचा कर देर रात तक रखते ही है। नहीं होगा तो ऐसा सेवा भाव है कि रात को भी हमारे प्रेमी बनाकर खिला देते हैं, अगर भूखे हैं, लोग आ गए तो। रात 2 बजे कोई भंडारे में आ जाए, भूखा है, भंडारी सो गए तो कौन खिलाएगा? वह पहरा लगाने वाले जो रोटी साग-सब्जी उनके पास रख देते हैं कि कोई भूखा-दूखा आ जाए तो खिला देना। भंडारी रखने की आदत बना दिए हैं। मान लो जवान आदमी पहरा लगा रहा है। जवानों को भूख ज्यादा लगती है। जवानों को तो घंटा पीछे दो रोटी, छोटी हो पर हो मोटी,???
चाहिए ही चाहिए। अब खाएगा नहीं तो करेगा क्या। भूख लगेगी तो कोई काम हो पाएगा। चाहे पहरा वाले खा ले, चाहे कोई आवे वो खा ले, यह सब भूखे-दुखे को खिला देते हैं। सन्त धन के भूखे नहीं होते हैं। तन के भी भूखे नहीं होते हैं। क्योंकि महापुरुषों का काम संकल्प मात्र से हो जाता है।